एक साधु थे ! तप करते- करते बाल भी सफेद हो चुके थे ! एक दिन वे एक पेड़ के निचे बैठे अपने शिष्यों को उपदेश दे रहे थे , " मनुष्य में अहंकार अर्थात घमंड नही होना चाहिए ! उसका सच्चा रूप तो विनम्रता है !" कुछ देर बाद एक शिष्य ने पूछा , "गुरूजी , कहते है - ज्ञान की कोई सीमा नही है ! आप से ज्ञान प्राप्त करने के बाद हमे ऐसे कौन से तपस्वी के पास जाना चाहिए जो आपसे अधिक ज्ञानी हो !
साधु को शिष्य की यह वाणी कड़वी लगी , बोले " मैने जीवन भर तप किया है ! मेरे सूखे और सफेद बालो से तुम इसका अनुमान लगा सकते हो ! फिर भला मुझसे बढ़कर तपस्वी और ज्ञानी और कौन हो सकता है ?
जिस वृक्ष के नीचे यह साधु उपदेश दे रहे थे , उस पर तोता-मैना भी बैठे साधु की यह बात सुन रहे थे ! बोले - "यह कैसा साधु है ? अभी कह रहा थे की घमंड कभी नही करना चाहिए जबकि स्वयं की तपस्या पर इतना घमण्ड है ! शायद इसे पता नही कि विनम्रता क्या होती है ? अगर यह पुष्कर साधु के पास जाए तो पता चल जाए कि कौन सच्चा और बड़ा तपस्वी है ?"
यह साधु पक्षियों को बोली समझते थे ! सुनते ही क्रोध में पुष्कर के साधु से मिलने चल पड़े जब यह साधु पुष्कर के उस आश्रम में पहुंचे तो देखा की वह साधु एक चबूतरे पर बैठे शिष्यों को उपदेश दे रहे है ! साधु निकट पहुंचकर क्रोध से बोले , तुम मुर्ख हो , धूर्त और पाखण्डी हो ! एक अनजान साधु के मुख से ये शब्द सुनकर शिष्य तो क्रोधित हो गए परन्तु शिष्य कुछ कहते , इससे से पूर्व ही साधु चबूतरे से नीचे आकर बोले, महात्मन !सचमुच ज्ञानी तो आप है आपने मुझे नया ज्ञान दिया है ! मेरे आसन पर तो आपको बैठना चाहिए ! मेरा स्थान तो नीचे है ! पुष्कर के साधु की विनम्रता को देखकर वह साधु पानी - पानी हो गए और बोले , जो क्रोध में भी ज्ञान का दीप जला ले , उससे महान भला और कौन हो सकता है ? सच्चे तपस्वी तो आप है !
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