Tuesday, 30 June 2015

जीवन का सार

मन की सारी व्रतियों को रोककर एक हो केंद्र पर मन का ध्यान लगाने को योग कहते है ! योग से मन काबू में आता है  अगर योग से मन पे काबू पा लिया जाये तो सारी सिद्धिया मिल जाती है  क्योकि मन ही इस संसार में सबसे बलवान है ! वही इंसानो के बंधन और मोक्ष का कारण होता है वही पाप और पुण्य का कर्ता है !

किसी जीव का दुःख दूर करना उसे सुख पहुचना उससे प्रेम करना यही पुण्य है यही धर्म है और किसी का मन दुखाना किसी को पीड़ा पहुचाना यही अधर्म है यही पाप है प्रेम ही पुण्य है घिर्णा ही पाप है !

इन्ही पाप पुण्यो में घिरा हुआ जीव एक योनि से दूसरी योनि में जन्म लेता मरता और फिर जन्म लेता रहता है !

प्राणी जब किसी शरीर में आता है तो उसे जन्म कहते है  और इस शरीर को छोड़कर किसी और स्थान पर चला जाता है  तो उसे मरण कहते है ! असल में केवल शरीर मरता है आत्मा नही मरती !

हमारे अंदर जो जीवित है वह जीव आत्मा है हम सब जीव आत्मा ज्योति कणो की तरह समय की अनंत लहरो पर बहते चले जा रहे है बहते चले जा रहे है !

असल में हर जीव आत्मा इस अनंत पथ पर अकेली ही सफर करती है  रस्ते में दिव्पो की तरह कई धरतीया कई लोक आते है जहाँ हम जन्म लेते है और दूसरे जीवो के साथ मिलने-बिछड़ने ,दोस्ती -दुश्मनी का खेल खेलते है  ! फिर एक दिन वहाँ का शरीर भी छोड़कर हम समय की लहरो पर अकेले ही आगे चल देते है ! बिछडने वालो का मोह थोड़ी दूर तक पिछा करता है परन्तु जीव तो नये नये रूप धारण कर लेता है ! लोको के बीच वह अकेला ही भटकता रहता है , भटकता रहता है !

इसका अंत केवल मुक्ति है और इंसान मुक्ति तभी पा सकता है  जब वह पाप और पुण्य दोनों से परे हो जाये ! क्योंकि पाप और पुण्य दोनों जी जंजीरे है एक लोहे की और एक सोने की ! परन्तु जब कर्म निष्काम कर्म हो जाता है फल की इच्छा से रहित हो जाता है तो जीव इस कर्म फल से मुक्त हो जाता है !


 IN ENGLISH


To stop the mind wandering and concentrate all faculties on one point is called yoga. When yoga controls the mind, all power can be gained becase the mind is the most powerful force in the world, IT binds as well as liberates man. IT is the doer of virtuous action or sin.

 

To relieve the pain of any being to give happiness and love this is virtue and Dharma and to injure someone and cause emotional pain is sin and againt Dharma.

SO LOVE IS VIRTUE AND HATRED IS SIN

 

A soual caught in the cycle of sin and virtue dies and reborn again and again in various wombs. When a soul enters any body it is called taking birth , when the soul departs from the body to go else where is death. In truth , only the body dies not the soul.

 

What is alive in us is the soul all individual souls are like atoms of light flow etenally on the stream of time. In truth each individual soul on this infinite path journeys alone like islands in the stream pass many worlds , many earths where we are born to meet others souals and part from them and play out games of friendship and enemity . And then the soul leaves this body too , to journey alone on the stream of time again love for those left behing again love for those left behind follows in its wake awhile the soul takes many new forms . Till it is reborn, it wanders among new beings the soul keeps wandering in loneliness the soul keeps wandering.

Only the souls salvation is the end man finds salvation only when he is free of sin and virtue because both sin and virtue are chains that bind one is Iron, the other is Golden. But when the action is deviod of desire for reward it is freed from desire the being is freed from the results of karma. 

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